Saturday 27 June 2015

Concentrate on changing yourself - see others changing.

स्वयम परिवर्तन से विश्व परिवर्तन 

हम दूसरों से बदलने की उम्मीद करते हैं. कई बार तो पूरी उम्र उन्हें बदलने के प्रयासों में लगे रहते हैं. हमें लगता है हम तो ठीक हैं अगर दूसरे सुधर जाएं तो जीवन ठीक चले. लेकिन हमें स्वयं को दूसरों की नजरों से भी देखना होगा. वे भी हमारे बारे में ऐसा ही सोचते हैं. 
यह भी सच है कि हमें परिवर्तित होते देख दूसरे भी परिवर्तित होने लगते हैं. खरबूजे को देख खरबूजा रंग बदलता है.
एक एक व्यक्ति कर के हर व्यक्ति के स्वयं परिवर्तन से ही विश्व परिवर्तन सम्भव होता है.
लाल बहादुर वर्मा ने अपने लेख 'अपने को गंम्भीरता से लें' (अहा ज़िन्दगी) में इसे ऐसे कहा है-
एक सूफी कहावत है कि खुद को बेहतर बनाना ही बेहतर दुनियां बनाने की और पहला कदम होता है. अपने को बेहतर बनाने के लिए ज़रूरी है नकारात्मक को कम करते जाना और सकारात्मक को संजोते संवारते जाना. अपने गुण दोष, सही गलत, दुःख सुख के लिए पहले खुद को जांचना फिर आनुवंशिकता को, फिर पालन पोषण को, फिर शिक्षा दीक्षा को, फिर मित्र शत्रु को और अंत में सरकार/व्यवस्था को. बाहरी कारणों का तो कुछ कर पाना मुश्किल होता है. व्यवस्था परिवर्तन में समय लगता है. परन्तु स्वं के परिवर्तन का काम तो तत्काल प्रारंभ किया जा सकता है. खुद को संवार कर हम असल में समाज के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी निभाते हैं.
किसी बदलाव का कुछ तयशुदा नुस्खा नहीं, लेकिन
बदल पाता है जो खुद को वही सबको बदलता है.- महेश अश्क  




Friday 26 June 2015

मानसिक प्रदूषण /Mental Pollution


THE FOCAL POINT IS THAT WE MUST NOW CHANGE OUR THINKING AND LIVING OTHERWISE WE WILL SUFFER EVEN MORE.


Why do we worship?



हम पूजा - अर्चना क्यों करते हैं?

हमने उन व्यक्तियों या वस्तुओं कि पूजा की -
  • जिन्हें हम अपने से श्रेष्ठ मानते हैं (उनके सदगुणों के कारण उनके प्रति प्रेम और सम्मान दर्शाने के लिए).
  • जिन्हें हम अपना पूर्वज मान कर सम्मान देते हैं (बताने के लिए कि हम उन्हें याद करते हैं और ये मानते हुए कि पूर्वज हमारे संरक्षक हैं, वे अब भी हमारी मदद कर सकते हैं).
  • जिन पर हमारी किसी न किसी रूप में निर्भरता है (उनके प्रति अपनी कृतज्ञता जताने के लिए और ताकि उनसे होने वाली प्राप्तियाँ न रुकें ).
  • आराध्य वस्तु का संरक्षण हो पाएगा इसलिए भी जैसे प्रकृति के पांच तत्व व  पशु पक्षी- ये पूजनीय होंगे तो इंसान  इन्हें  हानि नहीं पहुँचाएँगे. 
  • जिन से हम भयभीत होते हैं (उनके नाराज़ होने से हमारा नुक्सान हो सकता है).
  • हम जीवन में कोई न कोई कमी महसूस करते हैं या जो सुख शांति हमारे पास है उसके खो जाने का भय है. कहते हैं न दुःख में सुमिरन सब करें, सुख में करे न कोय.
इन सब कारणों के चलते द्वापर युग से अब तक बढ़ते बढ़ते पूजनीय चीज़ों कि संख्या में वृद्धि हुई है. 
देवी देवताओं के रूप में हम ने श्रेष्ठ राजाओं को पूजा, उनके वाहनों के रूप में हमने पशु - पक्षियों को पूजा, पृथ्वी - जल- अग्नि- वायु- आकाश को पूजा, वृक्षों- नदियों- पहाड़ों को पूजा, धर्म ग्रंथों को पूजा, इंसानी शक्तियों को पूजा, धन को- विद्या को पूजा, कन्या- माता - पिता- गुरु - कुल देवताओं को पूजा, साधू- सन्यासी- महापुरुषों को पूजा, पत्थरों और कब्रों को पूजा.  अब तो हम फिल्मों के नायक नायिकाओं के भी मन्दिर बनाए लगे हैं.
ये सब करते करते हम अजन्मे, अशरीरी, प्रकाश स्वरूप , परम पिता, गुणों के सागर, सर्वशक्तिमान परम आत्मा को भूल तो नहीं गए जिन्हें हम ईश्वर, अल्लाह, प्रभु और भगवान भी कहते हैं.




Thursday 25 June 2015

Recharge yourself

हर दिन के काम काज और मेल जोल के बाद हमारी आत्मिक बैटरी डिस्चार्ज हो जाती है. परमात्मा कि प्रेम भरी याद में बैठ हम मानो अपना रूहानी चार्जर एक अलौकिक प्लग में लगा देते हैं और ईश्वर अपनी ताकत से हमें भर  देते है. उस ताकत से हम अगले दिन के क्रियाकलापों और मेलजोल को अच्छी रीति निभा पाते हैं तथा स्वयम को और औरों को संतुष्ट कर पाते हैं. 

Wednesday 24 June 2015

श्रेष्ठ दान Donation, Charity, Giving


  • दान करने की आदत विकसित करने से हम अपनी लोभ और संग्रह वृति को कम कर पाते हैं. As a result of donating our feelings of greed and collection reduce. 
  • दान करने से त्याग, संतोष , सामर्थ्य और भरपूरता के भाव पैदा होते हैं. Feelings of prosperity emerge. 
  • दान किया अर्थात उसे अपना नहीं ईश्वर का माना.
  • अपनी उदारता और त्याग भावना हमें अपने प्रति सम्मान से भरती है. Our self respect increases.
  • हमें देख अन्य  लोग व अगली पीढ़ी  भी दान करने को प्रेरित होते  है. The next generations are inspired by us.
  • दान करने के समय ईश्वर का धन्यवाद करें कि आपको उसने इतना दिया कि किसी के साथ बाँट सकें. thank God that He has given you opportunity to donate and he has enabled you to donate.
  • दान देने के बाद उसे याद न रखें अन्यथा या तो त्याग ही हुआ नहीं या फिर अहंकार हो गया. Forget after donating otherwise pride will emerge.
  • दान देकर वापस लेने का न सोचें. एक बार दिया तो दूसरे का हुआ. Never take back the donated thing. 
  • अगर सुख पाने हेतु पुण्य संचित करना है तो दान देकर अन्य लोगों के सामने उसे बातें या गाएं नहीं. आपकी प्रशंसा हुई मन दान का फल मिल गया बस और कुछ नहीं.Never publicize yourself  as a donor. 
  • प्याऊ बनवाया, कमरा बनवाया, धर्मशाला बनवाई, स्कूल या अस्पताल बनवाया और उस पर अपना नाम लिखवा दिया तो आपके नाम का गायन होता रहेगा. यही गायन ही फल होगा और कोई पुण्य संचित नहीं होगा. Never get your name written on the things donated by you. 
  • अतः गुप्त दान ही  सर्वश्रेष्ठ दान होता है. Secret charity is the best. 

धन दान से भी श्रेष्ठ हैं ज्ञान दान, गुण दान, स्नेह दान, सुख दान, शांति दान, दया दान, क्षमा दान और ख़ुशी दान. 
Giving or donating knowledge, affection, virtues, happiness, peace, kindness and forgiveness is better than donating money. 

Tuesday 23 June 2015

Face to face with GOD.


Rajyog meditation means 
  • Remembering GOD by considering ourself  a soul not a body, 
  • Talking to Him face to face, telling him what is going on inside you, your mind
  • Confessing your mistakes
  • Asking forgiveness for wrong doings
  • Making promise - not to repeat the mistakes
  • Pledging to become worthy of His love
  • Taking oath to mend your ways.



How we the souls resemble GOD - our father?



GOD is a point of light - soul is also a point of light.

GOD is 
Ocean of LOVE, 
Ocean of PEACE, 
Ocean of POWER, 
Ocean of BLISS, 
Ocean of PURITY, 
Ocean of HAPPINESS and 
Ocean of KNOWLEDGE. 

He, the supreme soul, our supreme beloved FATHER fills  us (the human souls) with his own qualities as we are his children. We have right to these qualities. 

Friday 19 June 2015

Where I stay in my body?

Location / seat / position of soul in my body.

In a mirror, I do not see myself but the reflection of my body. I the soul look through the windows of the eyes from a place inside the head. It is in the area of the brain housing the thalamus, hypothalamus, pituitary and pineal glands.  This region is known as the seat of the soul or the third eye.  Soul's thought energy connects it with the body. It controls the body using the nervous system and the harmonal system.
Brain's Image from www. rickrichards.com
Soul -Near about the place where star is shown in the centre.

From the front, this region appears to be between and slightly above the line of the eyebrows.  The Hindus use a Tilak, a dot in red (Bindi) or sandalwood paste in the middle of the forehead.  This is important to know for meditation purposes because it is the place to which attention is first directed to concentrate the thoughts. 
Heart is affected by thoughts, emotion and feelings but these are not generated in Heart. The physical heart is just a pump for blood, chief part of circulatory system.  It can even be transplanted!  But brain can not be transplanted.

Thursday 18 June 2015

Who am I ?

I the soul.
Soul is a unique spiritual energy that manifests itself through a physical body. It needs body to express itself and live a life on this earth. When one body becomes ill, damaged or old it leaves the body and take birth with a new body. Body can not operate without a soul in it. As the we the souls possess the bodies its our duty to take care of our body which is our packaging / dress / home / vehicle. As soul can not be contained by walls it can enter and leave body through anywhere. Nothing can come in its way.

Tuesday 16 June 2015

Benefits of Raj yoga meditation

राजयोग से प्राप्तियाँ  
  1. खुशनुमा जीवन
  2. विकर्मों का विनाश,
  3. आध्यात्मिक सशक्तिकरण 
  4. साम्प्रदायिक सदभावना 
  5. एकाग्रता एवं मनोबल में वृद्धि 
  6. व्यवहारिक जीवन में नैतिकता 
  7. आत्मा और परमात्मा कि अनुभूति 
  8. गुणों एवं विशेषताओं का प्रकटीकरण व् वृद्धि 
  9. सकारात्मक जीवन शैली 
  10. आतंरिक शांति 
  11. तन और मन का स्वास्थ्य 
  12. संबंधों में मधुरता 


(ज्ञानामृत पत्रिका से, आभार सहित )

Monday 15 June 2015

Life's pleasure lost in the comforts and comparisons.

प्रतियोगिता और सुविधाओं में ही खोया जीवन का आनंद

लोग हमारे घर में भरे सामान की कीमत से हमारा रुतबा आंकते हैं, उसकी तरफ पूरा ध्यान देते हैं और उसके लिए हमारी तारीफ़ करते हैं. उनकी आँखें हमारा वैभव से सजा सजाया हमारा घर देख चमत्कृत नज़र आती हैं तो हम भी फूल कर कुप्पा हो जाते हैं फिर उस वैभव को बनाए रखने का पूरा प्रयास ताउम्र जारी रहता है. अगर हम सोचते हैं कि हमने घर को औरों जैसा नहीं सजाया है तो हम लोगों को अपने घर बुलाते ही नहीं. अगर हमने बहुत महँगी सजावट कि है तो हम लोगों को बुला बुला कर लाते हैं ताकि वे देख लें. अगर किसी ने देखा नहीं तो क्या फायदा हुआ इतना पैसा लगाने का. सजाया तो औरों के लिया है, तारीफ़ के लिए है. अगर किसी के घर गए और उन्होंने हम से बहुत बेहतर और महंगा सजाया है तो हम निराशा, अवसाद या हीन भावना से घिर जाते हैं. फिर आकर अपने घर पर नज़र दौड़ते हैं कि क्या बदल कर नया और बेहतर ले आऊँ कि अपने जानकारों कि बराबरी पर आ जाऊँ.
पहले हम पैदल चलते थे, फिर साइकिल आई, उसके बाद स्कूटर और अब गाड़ी लेकिन दर्द अब भी बना हुआ है कि गाड़ी का मॉडल पड़ोसियों और सहकर्मियों की गाड़ियों से सस्ता और छोटा और पुराना है.
पहले हम रंग उड़े हुए, घिसे हुए या मरम्मत किये वस्त्रादि पहन लेते थे. एक ही वस्त्र सप्ताह में बार बार पहन लेते थे क्योंकि बाकी लोग भी ऐसा ही करते थे. अब हम चाहते हैं कि हमारे वस्त्र को दोबारा पहनने का नम्बर इतनी देर से आए कि लोग उसे भूल चुके हों. और फिर उन्हें लगे कि यह तो नया है.
हम तब भी जिंदा थे जब फोन, मोबाइल, टी. वी., फ्रिज, ए.सी., गैस स्टोव, बल्ब, पंखा, मिक्सर, आदि अनेक चीज़ें हमारे घर में होते ही नहीं थे. ये इजाद ही नहीं हुए थे.
कहा जाता है कि अमीर बनना है तो गाँव में या छोटे शहर में जा बसिए और गरीब बनना है तो राजधानी या बड़े शहर में जा बसिए. अतः अमीरी तो तुलनात्मक ठहरी. पूरा जीवन इसी तुलना के कारण हम भागे फिरते हैं और सुख, चैन, शांति, आराम सब छिन जाता है.
हम जब अपने जीवन का लक्ष्य निर्धारित करते हैं तो सुखी और खुश रहने का नहीं बल्कि धन और पद पर आधारित प्रतिष्ठा पाने का होता है. हम कभी धन और सुविधाओं कि सीमा तय ही नहीं करते कि इतना पाने पर मैं सम्पूर्ण संतुष्ट हो कर आपा धापी छोड़ दूंगा और जीवन धीमी गति से आनंद लेते हुए जीऊँगा. लक्ष्य नज़दीक रखा हो तो हम जल्द उसे पा कर सुखी अनुभव करते हैं किन्तु अगर लक्ष्य हर वर्ष आगे खिसक जाए तो  आमदनी और वैभव बढ़ने कि दौड़ और उसमे होने वाला कष्ट अंतहीन हो जाते हैं. उन्हें पाने के लिए अनेक पाप भी करते हैं जिन्हें हम बिलकुल जायज़ भी ठहराते हैं, जैसे सिफारिश लगाना, कमीशन खाना, रिश्वत लेना, टैक्स देने से बचने के लिए कमाई छिपाना.

जीवन का अंतहीन दौड़ और दर्द हमारी अंतहीन इच्छाओं और सोच की ही पैदाइश है.

कितने भाग्यवान हम! / How lucky are we?

कितने भाग्यवान हैं हम कि
  1. हमारे अंग सलामत हैं.
  2. हमारे माता पिता जिंदा हैं.
  3. हमें पेट भर रोटी मिलती है.
  4. हमारे सर पर छत है.
  5. हम स्कूल , कॉलेज जा पाते हैं.
  6. हमारा दिमाग ठीक काम करता है. 
  7. दैनिक कार्यों लायक पानी हमारे घर पर ही आ जाता है.
  8. हम समर्थ हैं कि बीमार होने पर हम डॉक्टर के पास जा पाते हैं.
  9. हमारे पास जीवन का लक्ष्य है.
  10. दुनियां में कई लोग हैं जिन्हें हमारी ज़रूरत है.
  11. ईश्वर ने हमें कुछ ख़ास कामों को करने भेजा है जिन्हें हमारे अलावा कोई नहीं कर सकता था.
  12. हमारे बिना ये सृष्टि चक्र आगे बढ़ ही नहीं सकता क्योंकि इसमें हमारा पार्ट फिक्स है.

अब भी तसल्ली नहीं हुई तो हेलेन केलर के बारे में पढ़ें.

अस्तेय / Honesty

अस्तेय (ईमानदारी) का अर्थ है कोई भी वो वस्तु अपने पास न रख लेना या अपनी न बना लेना जो हमारी नहीं है या जिस पर हमारा हक नहीं है या जिसके बदले हमने कुछ (वस्तु या कार्य) दिया नहीं. ईमानदारी के ही पहलू हैं सत्यता, लोभ रहितता व निष्ठा. अस्तेय महर्षि पतंजलि द्वारा बताए गए पांच यमों में से एक है. जो अस्तेय नहीं कर सकता उसका अर्थ है कि उसका स्वयं पर नियंत्रण नहीं है.

अस्तेय का पालन करने का अर्थ है धोखा न देना. हेरा फेरी न करना. चोरी न करना. झूठ न बोलना. स्वयं से, औरों से व ईश्वर से ईमानदार. कोई न भी देख रहा हो तो भी ईमानदार.

ईमानदारी के आसानी से दिखने वाले लक्षण हैं:
  • रास्ते में पड़ी धनराशि घर न ले आकर दानपात्र में डाल देना.
  • कोई व्यापारी गलती से अधिक सामान या रूपए दे दे तो उसे वापस कर देना. 
  • खाली बैठ कर तनख्वाह न लेना. 
  • दो नम्बर का धन न कमाना. 
  • किसी और की सम्पत्ति न हड़पना. 
  • अपने मकान की चारदीवारी बढाकर सरकारी जमीन न घेरना. 
  • सम्पत्ति बंटवारे के समय दूसरे का हक न मारना. 
  • जितना खर्च हुआ उतना ही बताना. झूठे बिल न बनाना. 
  • बिना आमंत्रण किसी अनजान की शादी या पार्टी में घुस कर खाना न खाना. 
  • सरकारी गाड़ी व नौकरों का गैर क़ानूनी घरेलू इस्तमाल न करना.
अस्तेय का पालन करने से अनेक लाभ व् प्राप्तियां होती हैं.

ईमानदारी से आत्मा में बल भरता है. हम स्वयम का सम्मान कर पाते हैं तथा औरों द्वारा सम्मानीय व भरोसेमंद बनते हैं. मन की शांति बनी रहती है. किसी को दुःख देने का कारण नहीं बनते. हमारे विकर्मों की सूची नहीं बढ़ती. अपनी सन्तान ईमानदार बनती है. ईमानदारी से कमाया गया धन शुद्ध कमाई कहलाता है. शुद्ध कमाई से खाया गया अन्न भी अन्तःकरण को शुद्ध रखता है.

Saturday 13 June 2015

योग आसन / Yog Aasan


  • पतंजलि ने सुखपूर्वक लम्बे समय तक बैठने की क्रिया को आसन कहा है। यह देह को स्थिर करने का भी अभ्यास है. ध्यान - समाधि आदि में लम्बे काल के अभ्यास करने के लिए किसी आरामदायक आसन में बैठने की ज़रूरत होती है. 
  • बाद के  योगियों  ने अनेक आसनों की कल्पना की है। वास्तव में आसन हठयोग का एक मुख्य विषय है। 
  • अगर हम लम्बे समय तक शारीरिक मेहनत का कार्य नहीं करते तो तन रोगी और कड़ा होने लगता है. आसनों से काया लचीली व स्वस्थ बनती है. अलग अलग अंगों के स्वास्थ्य के लिए अलग अलग शारीरिक मुद्राओं का आविष्कार किया गया. अपने आस पास के पशु पक्षियों आदि को देख कर अलग अलग आसन ईजाद किये गए हैं, और उन्हीं पर उनके नाम रखे गए हैं, जैसे, वकासन, शशांक आसन, कच्छप आसन, सिंहासन.
  • आसनों को करने के लिए भी मन व शरीर का अनुशासन करना पड़ता है. अतः आसन भी योग के अगले चरणों में कुछ मदद तो करते ही हैं.

इच्छाएँ / कामनाएँ / Wants


इच्छाएँ असीमित होती हैं. वर्तमान इच्छाएँ पूरी होते ही हम नई सूची बना कर ईश्वर के सामने प्रस्तुत कर देते हैं. कानूनों, रिवाजों, रीतियों, आदि की लगाम न हो तो ये मानव मन जाने क्या क्या इच्छाएँ करने लगे. ऐसी इच्छाएं भी करेगा जो दूसरों के अधिकारों का हनन करें, दूसरों के लिए दुःख का कारण बनें. तब वे इच्छाएँ स्वार्थ हो जाएंगी, अधर्म होंगी, अवैध होंगी, नाजायज़ होंगी. रिश्वत, चोरी, दुष्कर्म, हत्या, परपुरुषगमन, परस्त्रीगमन, आदि ऐसी ही भयानक इच्छाओं के परिणाम हैं.  

वैसे भी बहुत सी इच्छाएँ ऐसी होती हैं जहाँ प्राप्ति के साथ ही ख़ुशी की समाप्ति हो जाती है. अप्राप्य वस्तु का आकर्षण बना रहता है, प्राप्त होने पर कीमत घटती जाती है.

कुछ इच्छाएँ ऐसी होती हैं जो पूरी करने पर और बढ़ जाती हैं, तो कोई कहाँ तक पूरी करे.

कुछ इच्छाएँ ऐसी होती हैं जिन के हम लायक पात्र  नहीं होते / हम पात्रता नहीं रखते.

कुछ इच्छाएँ भावुकतावश पैदा होती हैं अतः अस्थाई होती हैं. उन्हें पूरा कर लेना जल्दबाजी होती है, बाद  में पछताना पड़ता है.


इच्छाएँ पैदा होना स्वाभाविक है किन्तु उनका विश्लेषण कर ये जान लेना ज़रूरी है की कहीं नाजायज़ तो नहीं, अगर ऐसा है तो बुद्धि को तर्क द्वारा समझा बुझा कर उस इच्छा का त्याग किया जा सकता है. मन को मारना नहीं मनाना चाहिए.  

Sweetness/ मधुरता

मीठी बानी बोलिये मन का आपा खोय , औरन को शीतल करे आपहुं शीतल होय 

Sweetness of voice is admired by all. It is a virtue that is not difficult to cultivate. Our voice, speech or talk should have a quality that the listener becomes peaceful and happy and his or her face expressions should become cheerful and satisfied. 

Sweet speech is identified by positive, complimenting, encouraging and affectionate words; gestures and words suggesting regard and respect. The sweet voice will have softness, low to medium volume and a comparatively slow uttering.

We should take care that the sweetness of voice should be backed by the sweetness of heart otherwise our behaviour will appear artificial. 

When we speak with love, affection and respect in our heart the words will be sweet for example the words of motivation, sympathy, gratitude and appreciation. Whereas the words spoken with the stimulus of anger, jealousy, ego, etc. can never be sweet e.g. ridicule, taunt, criticism, scolding and impressing forcefully.

When we expect others to speak sweetly and politely to us, others also have same expectation from us. When we are sweet others are compelled to return the same sweetness. 

Sweetness of talk brings sweet results. Sweetness wins hearts. Sweetness makes the business run. We will earn blessings of others. We will not create negative behavioural accounts with others. Relationships will be beautiful. We will earn respect and cooperation. Number of enemies will reduce and friends list will expand. When loved by all we will be happier and life will be easy and beautiful.

Sweetness of conversation should be worked upon. When we will consider all human beings belonging to one family whose head is God then we will have affection for all. Reducing ego and being humble sweetens our voice. When we learn to be appreciative we automatically become sweet. When we will not be revengeful but friendly it will reflect in our voice. Always keeping the feel of satisfaction and mercy for others cools our talk. Learning to be soul conscious and continuously remembering God will give us control on ourselves and our speech.

Friday 12 June 2015

नियम / Niyam- Rules (Ashtang YOG / Rajyog)

नियम (Rules, Personal Discipline)
महर्षि पतंजलि द्वारा योगसूत्र में यम की ही भांति  पांच नियम भी दिए गए हैं जिन्हें अष्टांग योग (Ashtang YOG / Rajyog) की द्वितीय सीढ़ी कह सकते है. ये हैं शौच , संतोष , तप, स्वाध्याय, और ईश्वर प्रणिधान.

  1. शौच / पवित्रता (Purity)- स्नान से काया की, स्वार्थ त्याग से व्यवहार की, न्यायोचित विधि से कमाए गए धन से प्राप्त सात्विक भोजन करने से आहार की शुद्धि पाना यह बाहरी पवित्रता है. काम क्रोध लोभ मोह अहंकार आदि विकृतियों का  त्याग करना  भीतरी पवित्रता है.
  2. संतोष (Contentment)- सफलता -असफलता, सुख दुःख, नफा नुकसान, निंदा -तारीफ़ आदि किसी भी परिस्थिति में संतुष्ट महसूस करना अर्थात  शिकायत न करना, हलचल में न आना.
  3. तप (Endurance)- धर्म पालन, संयम या  इन्द्रियों पर नियन्त्रण पाने के लिए सुख व आराम का त्याग करना तप है.
  4. स्वाध्याय (Self study)- धर्म सम्बन्धी ज्ञान वर्धन के लिए धर्म ग्रंथों को पढना, उनका चिन्तन मनन करना और अन्य से उन विषयों पर वार्तालाप करना स्वाध्याय है.
  5. ईश्वर प्रणिधान (Dedication to GOD)- तन, मन और धन ईश्वर के ही समझना, ईश्वर को मन, वचन और कर्म समर्पित करना और ईश्वर को पसंद हो ऐसा ही देखना, सुनना, बोलना सोचना और करना. 

संयम / यम (Sanyam / Yam)

संयम / यम  (Behavioural regulation)

योग सिर्फ शारीरिक आसनों का नाम नहीं है. योगासन तो योग का एक अंग मात्र है. महर्षि पतंजलि के अनुसार योग की पहली सीढ़ी तो यम है. इसमें तन, मन और वाणी के संयम बताए गए हैं. संयम से मन पवित्र बनता है. अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह व्यवहार के पाँच नियन्त्रण  हैं। पांचों ही का पालन मन की पवित्रता (cleanliness, purity) को पाने के लिए आवश्यक है. इनका पालन न करने से व्यक्ति का जीवन और समाज दोनों ही दुष्प्रभावित होते हैं। (लेकिन हम भूखे रहने के व्रत तो रखते हैं, व्यवहार सम्बन्धी व्रत नहीं रखते, मुश्किल जो होते हैं.)

  1. अहिंसा (Non-violence)- किसी भी जीव को या स्वयम को किसी भी प्रकार से कष्ट न पहुँचाना- न मानसिक न शारीरिक.(Not harming anybody in any manner).
  2. सत्य (Truth)- जैसे मन में भाव हों वही जुबां पर लाना, बिना लीपा पोती, बिना कपट किन्तु मधुर शब्दों में सत्य बात ही कहना. 
  3. अस्तेय (No theft)- किसी की कोई वस्तु चुपके से / बिना पूछे न लेना, न ही छीनना, न ही मन में ऐसा करने की सोचना. ये विचार न आने देना कि फलां कि वह वस्तु मेरी हो जाए. 
  4. ब्रह्मचर्य (Celibacy)- ब्रह्मा के अनुरूप आचरण करना अर्थात मन, वाणी और शरीर तीनों द्वारा ब्रह्मचारी होना. किसी के शरीर को भोगने की इच्छा न रखना. 
  5. अपरिग्रह (Not storing)- धन व उपभोग की किसी भी वस्तु का अधिक संग्रह न करना. 

इन पाँचों व्रतों का पालन करना महाव्रत करना कहलाता है.



Wednesday 10 June 2015

पैंजिया - महा महाद्वीप जहाँ स्वर्ग था / Pangea - The Satyugi Continent



पैंजिया, पैन्जेया या पैंजी 

एक विशाल एकीकृत महाद्वीप (सुपरकॉन्टीनेंट) था जो पृथ्वी पर मौजूद एकमात्र भूखंड था. भूविज्ञानी इसे पैंजिया कहते हैं. एक ही विशाल महासागर पैंजिया को चारों ओर से घेरे हुए था। इसका नाम उन्होंने पैंथालासा रखा. मौजूदा महाद्वीप अपने वर्तमान स्वरूप में इसके विभाजित या विखंडित होने से निकल कर आये हैं।

अपनी पुस्तक "द ओरिजिन ऑफ कॉन्टिनेंट्स एंड ओशंस" (डाई एंटस्टेहंग डर कोंटिनेंट एंड ओजियेन) में अल्फ्रेड वेजेनर ने माना था कि सभी महाद्वीप बाद में विखंडित होने और प्रवाहित होकर (बह कर ) अपने वर्तमान स्थानों पर पहुँचने से पहले एक समय में एक विशाल महाद्वीप का हिस्सा थे । महाद्वीपों के बनने से महासागर भी विखंडित हो गया और नए महासागर बने. भूवैज्ञानिक इस विखंडन को साबित करने के लिए अनेक साक्ष्य व तर्क देते हैं. 

पैंजिया से पहले कई अन्य निर्माण भी हुए हो सकते हैं जैसे पैनोटिया और रोडीनिया। अब भूविज्ञानी यह पूर्वानुमान लगा रहे हैं कि अगर महाद्वीपों का सरकना निरंतर जारी है तो सभी महाद्वीप फिर से इकट्ठे होकर एक नया अविभाजित विशाल महाद्वीप बनाएँगे. 

भू वैज्ञानिक पैंजिया का अस्तित्व लगभग 250 मिलियन वर्ष पहले मानते हैं, जबकि अध्यात्मिक ज्ञान की कुछ शाखाएँ इसे सिर्फ 5000 वर्ष पुरानी घटना मानते हैं. अध्यात्म कहता है की सृष्टि चक्रीय रूप में चलती है. हर 5000 वर्ष में एक बार महाद्वीपीय विखंडन और एक बार महाद्वीपीय विलय घटित होता है. सतयुग के प्रारम्भ में एक भूखंड एक राष्ट्र व एक शासक होता है. भरपूर संसाधन, कम जनसंख्या और प्रकृति की सर्वोत्तम अवस्था के कारण कोई युद्ध, दुःख या शोक नहीं होते. अतः धरती पर ही स्वर्ग होता है. दो युग – सतयुग और त्रेता बीतने पर अर्थात 2500 वर्ष बाद द्वापर युग के प्रारम्भ में धरती की जबर्दस्त हलचल के कारण एक महाद्वीप कई महाद्वीपों में खंडित हो जाता है. यहाँ से दुःख प्रारम्भ होते हैं. जनसंख्या बढती जाती है प्रकृति की हालत बिगडती जाती है. इसलिए धरती पर ही नर्क कहा जाता है. फिर से 2500 वर्ष बीतने पर अर्थात कलयुग के अंत में बड़ी हलचलों के कारण सभी महाद्वीप एकीकृत हो जाते हैं. इन अत्यधिक हलचलों के साथ साथ अधिकतर जनसंख्या खत्म हो जाती है. भूस्खलन, भूकम्प, परमाणु युद्धों, बाढ़, महामारियों, सुनामी आदि के कारण पुरानी जीर्ण क्षीण प्रकृति का नवीनीकरण होकर फिर से स्वर्ग आ जाता है.
भू विज्ञानी इस प्रक्रिया को हालाँकि 250 मिलियन वर्ष में घटित बताते हैं।  इस विषय में एक भूगोल विशेषज्ञ से पूछा गया कि यह गणना किस आधार पर की जाती है। उन्होंने बताया कि गणना के समय टेक्टोनिक प्लेटों के खिसकने की गति से यह अनुमान लगाया जाता है।  किंतु उन्होंने यह स्वीकार किया कि इस बात का कोई प्रमाण नहीं है कि यह गति सदा समान होगी। भूत में यह अधिक भी रही हो सकती है या भविष्य में अधिक हो सकती है।  उन्होंने यह भी बताया कि जब कोई प्रक्रिया अपने अंत पर होती है तब उसकी गति कई गुना बढ़ जाती है जिससे घटनाक्रम अनअपेक्षित तीव्रता से घटते हैं। अतः सत्य स्वीकृत गणना से कुछ भिन्न  हो इस बात को इसे नाकारा नहीं जा सकता।


Tuesday 9 June 2015

योग है परमात्मा को पाने की विधि / Yog to attain God


योग की परिभाषा देते हुए पतंजलि कहते हैं- 'योगाश्चित्त वृत्तिनिरोधः'। अर्थात योग चित्त की वृत्तियों का संयमन (Controlling our own mind) है। चित्त वृत्तियों के निरोध के लिए महर्षि पतंजलि ने अष्टांग योग साधन का उपदेश दिया है.

अष्टांग योग :  लगभग 200 ई.पू. महर्षि पतंजलि ने योग को लिखित रूप में संकलित किया और योग-सूत्र की रचना की। योग-सूत्र की रचना के कारण पतंजलि को योग का पिता कहा जाता है। महर्षि पतंजलि ने योग की समस्त विद्याओं को आठ अंगों में बाँटा है - (1) यम (2) नियम (3) आसन (4) प्राणायाम (5) प्रत्याहार (6) धारणा (7) ध्यान (8) समाधि। वर्तमान में योग के तीन ही अंग प्रचलन में हैं- आसन, प्राणायाम और ध्यान।

'योगसूत्र' योग दर्शन का प्रथम व्यवस्थित और वैज्ञानिक अध्ययन है। योगदर्शन इन चार विस्तृत भाग, जिन्हें इस ग्रंथ में पाद कहा गया है, में विभाजित है- समाधिपाद, साधनपाद, विभूतिपाद तथा कैवल्यपाद। इनमे निम्नलिखित विषयों का वर्णन है.

प्रथम पाद : चित्त की विभिन्न वृत्तियों के नियमन (संयम, संतुलन, नियन्त्रण) से समाधि के द्वारा आत्म साक्षात्कार करना है।
द्वितीय पाद (बहिरंग): यम, नियम, आसन, प्राणायाम और प्रत्याहार।
तृतीय पाद (अंतरंग): धारणा, ध्यान और समाधि का वर्णन है। इसमें योगाभ्यास के दौरान प्राप्त होने वाली विभिन्न सिद्धियों का भी उल्लेख है, जो ऋषि के अनुसार समाधि के मार्ग की बाधाएँ ही हैं।
चतुर्थ पाद: कैवल्य, मुक्ति की सबसे ऊंची अवस्था है, जहाँ एक योगी अपने मूल स्रोत (परमात्मा) से एकाकार हो जाता है।

अष्टांग योग का संक्षिप्त परिचय निम्नानुसार है:

1) यम:  इसमें तन, मन और वाणी के संयम बताए गए हैं. अहिंसा (Not harming anybody in any manner), सत्य, अस्तेय (चोरी न करना), ब्रह्मचर्य व अपरिग्रह (धन व वस्तुओं का संग्रह न करना) व्यवहार के पाँच नियन्त्रण  हैं। इनका पालन न करने से व्यक्ति का जीवन और समाज दोनों ही दुष्प्रभावित होते हैं। (लेकिन हम भूखे रहने के व्रत तो रखते हैं, व्यवहार सम्बन्धी व्रत नहीं रखते, मुश्किल जो होते हैं.)

(2) नियम:  मनुष्य को कर्तव्यनिष्ठ बनाने तथा जीवन को सुव्यवस्थित करते हेतु नियमों को बनाया जाना चाहिए। इनके अंतर्गत शौच (अंदर बाहर की शुद्धि), संतोष, तप (Discipline), स्वाध्याय (अध्ययन, जप) तथा ईश्वर प्रणिधान (सभी कर्म ईश्वर को समर्पित करके भक्तिपूर्वक करना, Full faith and devotion) सम्मिलित है।

(3) आसन:  पतंजलि ने स्थिर तथा सुखपूर्वक बैठने की क्रिया को आसन कहा है। यह देह को स्थिर करने का भी अभ्यास है. बाद के  विचारकों ने अनेक आसनों की कल्पना की है। वास्तव में आसन हठयोग का एक मुख्य विषय है। आसनों से काया लचीली व स्वस्थ बनती है.

(4) प्राणायाम:  नाड़ी साधन और उनके जागरण के लिए किया जाने वाला श्वास का नियमन प्राणायाम है। प्राणायाम मन की चंचलता और अशांति या बेचैनी पर विजय प्राप्त करने के लिए बहुत सहायक है। यह श्वसन तन्त्र, तंत्रिका तन्त्र व रक्तवाहि तन्त्र के लिए उत्तम है. इनसे भीतरी अंगों का भी व्यायाम होता है तथा श्वास व मन की स्थिरता आती है.

(5) प्रत्याहार: इंद्रियों (senses) को विषयों (सांसारिक आकर्षणों) से हटाने का नाम ही प्रत्याहार है। इंद्रियाँ मनुष्य को बहिर्मुखी (extrovert) किया करती हैं। प्रत्याहार का अभ्यास अन्तर्मुखिता (introversion and introspection) की स्थिति प्राप्त करता है।

(6) धारणा:  चित्त को एक स्थान विशेष पर (हृदय, नाक का अग्रभाग, मस्तक में भावों के मध्य या देवता की मूर्ति, आदि) केंद्रित (concentrate) करना ही धारणा है।

(7) ध्यान: जब ध्येय वस्तु का चिंतन करते हुए चित्त उस में व्यस्त हो जाता है तो उसे ध्यान कहते हैं। पूर्ण ध्यान की स्थिति में किसी अन्य वस्तु का ज्ञान या उसकी स्मृति नहीं रहती।

(8) समाधि: ध्यान की परिपक्व अवस्था का नाम समाधि है. यह चित्त की अवस्था है जिसमें चित्त ध्येय वस्तु के चिंतन में पूरी तरह लीन हो जाता है। योग दर्शन समाधि के द्वारा ही मोक्ष प्राप्ति को संभव मानता है।

प्रथम पांच की साधना कर लेने के बाद ही अंतिम तीन की साधना करने का अधिकार प्राप्त होता है.

योग का अंतिम लक्ष्य होता है प्रज्ञा का उदय अर्थात सत्य ज्ञान की प्राप्ति, विवेक की जागृति, आत्मा का आलोकित या प्रकाशित होना. समाधि की सफलता पर ही यह लक्ष्य प्राप्त होता है. 

Saturday 6 June 2015

स्वाद / Perception of Taste

भूख मीठी के भोजन मीठा ?
स्वाद सिर्फ भोजन में नहीं. स्वाद भूख में भी है, स्वाद जिव्हा की स्थिति में भी है और स्वाद मन कि स्थिति में भी है.
भोजन अवश्य स्वाद लगेगा अगर -
  1. सही नमक या सही मीठा हो 
  2. सही पका भोजन हो
  3. सही भूख लगी हो
  4. सही मन हो (प्रसन्न हो, स्वस्थ हो)

बार बार नए व्यंजन चाहना मन की बेचैनी ही तो है.
ये भी विचारणीय है की हम जिव्हा के लिए खाते हैं, पेट भरने के लिए, शरीर के पोषण के लिए या मन के पोषण के लिए. अतः स्वाद हमेशा और सर्वाधिक महत्व नहीं रखता.

Friday 5 June 2015

Cancer Survivors Day

भारत सहित कई  देशों में जून का पहला रविवार कैंसर सर्वाइवर्स  दिवस के रूप में मनाया जाता है.
इसे वर्ष 1988 से मनाया जा रहा है.

  • इस दिन कैंसर पर विजय पाने वालों का उनकी मजबूती और हिम्मत के लिए सम्मान किया जाता है. 
  • परिवार के सदस्यों, मित्रों व स्वास्थ्य कर्मियों के सहयोग की भी सराहना की जाती है.
  • ख़ुशी मनाने के लिए रंगारंग आयोजन किये जाते हैं. 
  • लोगों में इससे बचने की जागृति बनी रहे इसलिए दिवस मनाए जाते हैं. 


कहते हैं  ' कोई लाख करे चतुराई, भाग्य का लेख मिटे न रे भाई'.

फिर भी

  • कैंसर के बारे में अपना ज्ञान बढाएं. 
  • जीवन शैली के सुधार पर यथासम्भव ध्यान दें. 
  • अच्छे कर्मों द्वारा औरों की दुआएं पाएं.
  • वातावरण को स्वच्छ, प्रदूषण रहित रखने में अपना योगदान दे.
  • मन को दर्द में न जाने दें . 
  • ईश्वर को याद रख निर्भय - निश्चिन्त रहने का प्रयास करें. 

Wednesday 3 June 2015

पुनर्जन्म / Rebirth./ Reincarnation


इंसान में हमेशा ये जिज्ञासा रही है की मृत्यु के बाद उसका क्या होता है?

ये प्रश्न अपने आप में एक जवाब तो देता है कि हम अपने आप को सिर्फ शरीर मानने को तैयार नहीं जिसके नष्ट करने पर हम नष्ट हो जाते हों. हम हमेशा रहना चाहते हैं. हम नहीं रहेंगे ये विचार हमें स्वीकार नहीं होता. हमारा अंतर्मन मानता है कि हम इस शरीर में रहने वाली चेतन (जिसमें सोचने समझने की शक्ति हो) शक्ति हैं जो मृत्यु होने पर शरीर को छोड़ देती है. तभी तो उसे देहत्याग कहा जाता है.

श्रीमद् भागवत गीता (भगवान द्वारा सुनाई गई श्रेष्ठ मत) कहती है की आत्मा तो अजर -अमर -अविनाशी है. तो फिर मृत्यु पर आत्मा खत्म कैसे हो सकती है? ज़रूर वह सिर्फ स्थान परिवर्तन और शरीर परिवर्तन करती है.

अगर सृष्टि चक्रीय रूप में चलती है तो आत्मा को बार बार शरीर लेना ही होता है. गीता में भगवान् भी कहते हैं कि मैं धर्म की स्थापना के लिए पुनः पुनः धरती पर आता हूँ. इसका अर्थ है कि सृष्टि की सभी घटनाओं की एक निश्चित समय के बाद पुनरावृत्ति (दोहराव) होती है.

सभी लोग तो मोक्ष प्राप्ति (जन्म मरण के चक्र से मुक्ति) का प्रयास नहीं करते. फिर ज़ाहिर है उन्हें तो फिर से जन्म लेना ही पड़ेगा.

कहते हैं ‘ अंत मति सो गति’ अर्थात मृत्यु के समय जो हमारी बुद्धि में होता है (जो बात याद आती है, जो विचार चलते है) उसी के अनुरूप नया जन्म मिलता है. यह कथन भी पूर्व जन्म को सिद्द करता है.

एक जन्म में हमारी जो इच्छाएँ अपूर्ण रह जाती हैं उन्हें पूर्ण करने के लिए फिर से जन्म लेते हैं. हम पूरी तरह संतुष्ट तो कभी भी नहीं होते इसलिए फिर से जन्म लेना ही पड़ता है.



हमारा पूर्वजन्म और कर्मों का हिसाब / Our past birth and Karmik account



हम अर्थात कोई भी आत्मा अपने कर्मों का फल भोगने के लिए पुनः जन्म लेती है. हर जन्म हम अपने आस पास रहने वाले लोगों से कर्मों के खाते / हिसाब किताब बनाते हैं. किसी से हम कुछ भी मदद लेते हैं (कार्य, धन, वस्तु, सेवा आदि) उसका हम पर कर्ज़ बन जाता है और कोई हमारा कर्ज़वान बनता है. ये सभी कर्ज़ एक जन्म में उतार देना असम्भव होता है. समय या अवसर नहीं मिल पता. जिनसे कुछ लेना या देना बाकी रह जाता है आत्मा उन्हीं के आस पास फिर से जन्म लेती है. हमे पता इसलिए नहीं चलता कि हम पूर्व जन्म को भूल चुके होते हैं. लेकिन फिर भी हिसाब किताब आत्मा की गहराई में छिपे रहते हैं जिन्हें वह अपने नए कर्मों के द्वारा निपटाती चलती है. अगर पूर्व जन्म याद रहने लगें तो नए जन्म के नए सम्बन्ध स्वीकार करने में मुश्किल होगी. पुराने परिवार का मोह खींचने लगेगा. सामाजिक ढांचा बिखर जाएगा. अतः इस जन्म में जो लोग हमें दुःख देते प्रतीत हो रहे हैं या हमें उनके लिए बहुत करना पड़ रहा है तो समझना चाहिए कि हमारा कुछ पूर्व जन्म का बकाया / बैलेंस बचा है जिसे वह वसूल रहा है.

Monday 1 June 2015

कबीर के राम / Kabeer's GOD


कबीर के राम दशरथ पुत्र राजा राम नहीं बल्कि ईश्वर / भगवान हैं. (हम भी इस शब्द का प्रयोग करते हैं जैसे ' राम जाने', 'राम बरसा', 'राम-राम भाई'.)

कबीर के राम परम समर्थ (सब से शक्तिशाली) और सबमें व्याप्त रहने वाले हैं। वह कहते हैं- व्यापक ब्रह्म सबनिमैं एकै, को पंडित को जोगी (अर्थात सभी इंसान समान हैं व सब के ईश्वर भी समान हैं). कबीर राम की किसी खास रूप या आकृति की कल्पना नहीं करते, क्योंकि ऐसा करते ही राम किसी खास ढाँचे (फ्रेम) में बँध जाते, जो कबीर को मंजूर नहीं। कबीर राम की अवधारणा को एक अलग और व्यापक स्वरूप देना चाहते थे।

कबीर नाम में विश्वास रखते हैं, रूप में नहीं। कबीर ने निर्गुण रामशब्द का प्रयोग किया–‘निर्गुण राम जपहु रे भाई।इस निर्गुणशब्द से कबीर का आशय है कि ईश्वर को इंसानों की तरह किसी नाम, रूप, गुण, काल आदि की सीमाओं में बाँधा नहीं जा सकता। अर्थात ईश्वर अजन्मा और अशरीरी है. वो सारी सीमाओं से परे हैं और फिर भी सर्वत्र हैं (सर्वत्र कहने का अभिप्राय यह रहा होगा कि वे या उनकी शक्ति पलक झपकते कहीं भी पहुँचने में सक्षम है, उन्हें कहीं भी बैठ कर याद किया जा सकता है, इंसान का कोई छिप कर किया गया कार्य भी उनसे छिप नहीं सकता है). इसे उन्होंने रमता रामनाम दिया है।

कबीर राम के साथ एक व्यक्तिगत पारिवारिक किस्म का संबंध स्थापित करते हैं। राम के साथ उनका प्रेम उनकी अलौकिक (इस धरती से परे) और महिमाशाली सत्ता (गुणों से भरी अथोरिटी) को एक क्षण भी भुलाए बगैर (लगातार, हर पल याद रखना) सहज मानवीय संबंधों के रूप में  है।
अपने राम को निर्गुण विशेषण देने के बावजूद कबीर उनके साथ मानवीय प्रेम संबंधों की तरह के रिश्ते की बात करते हैं। कभी वह राम को मधुरता भाव से अपना प्रेमी या पति मान लेते हैं तो कभी दासता के  भाव से स्वामी। कभी-कभी वह राम को वात्सल्य भरी  माँ मान लेते हैं ।
अशरीरी ईश्वर के साथ भी इस तरह का मानवीय प्रेम कबीर की भक्ति का अनोखापन है। यह दुविधा  दूसरों को भले हो सकती है कि जिस राम के साथ कबीर मानवीय संबंध जैसा प्रेम करते हों, वह भला निर्गुण कैसे हो सकते हैं, पर खुद कबीर के लिए यह समस्या नहीं है। वह कहते हैं-गुनमैं निरगुन, निरगुनमैं गुन, बाट छांड़ि क्यूं बहिसे!”