Tuesday 9 June 2015

योग है परमात्मा को पाने की विधि / Yog to attain God


योग की परिभाषा देते हुए पतंजलि कहते हैं- 'योगाश्चित्त वृत्तिनिरोधः'। अर्थात योग चित्त की वृत्तियों का संयमन (Controlling our own mind) है। चित्त वृत्तियों के निरोध के लिए महर्षि पतंजलि ने अष्टांग योग साधन का उपदेश दिया है.

अष्टांग योग :  लगभग 200 ई.पू. महर्षि पतंजलि ने योग को लिखित रूप में संकलित किया और योग-सूत्र की रचना की। योग-सूत्र की रचना के कारण पतंजलि को योग का पिता कहा जाता है। महर्षि पतंजलि ने योग की समस्त विद्याओं को आठ अंगों में बाँटा है - (1) यम (2) नियम (3) आसन (4) प्राणायाम (5) प्रत्याहार (6) धारणा (7) ध्यान (8) समाधि। वर्तमान में योग के तीन ही अंग प्रचलन में हैं- आसन, प्राणायाम और ध्यान।

'योगसूत्र' योग दर्शन का प्रथम व्यवस्थित और वैज्ञानिक अध्ययन है। योगदर्शन इन चार विस्तृत भाग, जिन्हें इस ग्रंथ में पाद कहा गया है, में विभाजित है- समाधिपाद, साधनपाद, विभूतिपाद तथा कैवल्यपाद। इनमे निम्नलिखित विषयों का वर्णन है.

प्रथम पाद : चित्त की विभिन्न वृत्तियों के नियमन (संयम, संतुलन, नियन्त्रण) से समाधि के द्वारा आत्म साक्षात्कार करना है।
द्वितीय पाद (बहिरंग): यम, नियम, आसन, प्राणायाम और प्रत्याहार।
तृतीय पाद (अंतरंग): धारणा, ध्यान और समाधि का वर्णन है। इसमें योगाभ्यास के दौरान प्राप्त होने वाली विभिन्न सिद्धियों का भी उल्लेख है, जो ऋषि के अनुसार समाधि के मार्ग की बाधाएँ ही हैं।
चतुर्थ पाद: कैवल्य, मुक्ति की सबसे ऊंची अवस्था है, जहाँ एक योगी अपने मूल स्रोत (परमात्मा) से एकाकार हो जाता है।

अष्टांग योग का संक्षिप्त परिचय निम्नानुसार है:

1) यम:  इसमें तन, मन और वाणी के संयम बताए गए हैं. अहिंसा (Not harming anybody in any manner), सत्य, अस्तेय (चोरी न करना), ब्रह्मचर्य व अपरिग्रह (धन व वस्तुओं का संग्रह न करना) व्यवहार के पाँच नियन्त्रण  हैं। इनका पालन न करने से व्यक्ति का जीवन और समाज दोनों ही दुष्प्रभावित होते हैं। (लेकिन हम भूखे रहने के व्रत तो रखते हैं, व्यवहार सम्बन्धी व्रत नहीं रखते, मुश्किल जो होते हैं.)

(2) नियम:  मनुष्य को कर्तव्यनिष्ठ बनाने तथा जीवन को सुव्यवस्थित करते हेतु नियमों को बनाया जाना चाहिए। इनके अंतर्गत शौच (अंदर बाहर की शुद्धि), संतोष, तप (Discipline), स्वाध्याय (अध्ययन, जप) तथा ईश्वर प्रणिधान (सभी कर्म ईश्वर को समर्पित करके भक्तिपूर्वक करना, Full faith and devotion) सम्मिलित है।

(3) आसन:  पतंजलि ने स्थिर तथा सुखपूर्वक बैठने की क्रिया को आसन कहा है। यह देह को स्थिर करने का भी अभ्यास है. बाद के  विचारकों ने अनेक आसनों की कल्पना की है। वास्तव में आसन हठयोग का एक मुख्य विषय है। आसनों से काया लचीली व स्वस्थ बनती है.

(4) प्राणायाम:  नाड़ी साधन और उनके जागरण के लिए किया जाने वाला श्वास का नियमन प्राणायाम है। प्राणायाम मन की चंचलता और अशांति या बेचैनी पर विजय प्राप्त करने के लिए बहुत सहायक है। यह श्वसन तन्त्र, तंत्रिका तन्त्र व रक्तवाहि तन्त्र के लिए उत्तम है. इनसे भीतरी अंगों का भी व्यायाम होता है तथा श्वास व मन की स्थिरता आती है.

(5) प्रत्याहार: इंद्रियों (senses) को विषयों (सांसारिक आकर्षणों) से हटाने का नाम ही प्रत्याहार है। इंद्रियाँ मनुष्य को बहिर्मुखी (extrovert) किया करती हैं। प्रत्याहार का अभ्यास अन्तर्मुखिता (introversion and introspection) की स्थिति प्राप्त करता है।

(6) धारणा:  चित्त को एक स्थान विशेष पर (हृदय, नाक का अग्रभाग, मस्तक में भावों के मध्य या देवता की मूर्ति, आदि) केंद्रित (concentrate) करना ही धारणा है।

(7) ध्यान: जब ध्येय वस्तु का चिंतन करते हुए चित्त उस में व्यस्त हो जाता है तो उसे ध्यान कहते हैं। पूर्ण ध्यान की स्थिति में किसी अन्य वस्तु का ज्ञान या उसकी स्मृति नहीं रहती।

(8) समाधि: ध्यान की परिपक्व अवस्था का नाम समाधि है. यह चित्त की अवस्था है जिसमें चित्त ध्येय वस्तु के चिंतन में पूरी तरह लीन हो जाता है। योग दर्शन समाधि के द्वारा ही मोक्ष प्राप्ति को संभव मानता है।

प्रथम पांच की साधना कर लेने के बाद ही अंतिम तीन की साधना करने का अधिकार प्राप्त होता है.

योग का अंतिम लक्ष्य होता है प्रज्ञा का उदय अर्थात सत्य ज्ञान की प्राप्ति, विवेक की जागृति, आत्मा का आलोकित या प्रकाशित होना. समाधि की सफलता पर ही यह लक्ष्य प्राप्त होता है. 

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