Monday 1 June 2015

कबीर के राम / Kabeer's GOD


कबीर के राम दशरथ पुत्र राजा राम नहीं बल्कि ईश्वर / भगवान हैं. (हम भी इस शब्द का प्रयोग करते हैं जैसे ' राम जाने', 'राम बरसा', 'राम-राम भाई'.)

कबीर के राम परम समर्थ (सब से शक्तिशाली) और सबमें व्याप्त रहने वाले हैं। वह कहते हैं- व्यापक ब्रह्म सबनिमैं एकै, को पंडित को जोगी (अर्थात सभी इंसान समान हैं व सब के ईश्वर भी समान हैं). कबीर राम की किसी खास रूप या आकृति की कल्पना नहीं करते, क्योंकि ऐसा करते ही राम किसी खास ढाँचे (फ्रेम) में बँध जाते, जो कबीर को मंजूर नहीं। कबीर राम की अवधारणा को एक अलग और व्यापक स्वरूप देना चाहते थे।

कबीर नाम में विश्वास रखते हैं, रूप में नहीं। कबीर ने निर्गुण रामशब्द का प्रयोग किया–‘निर्गुण राम जपहु रे भाई।इस निर्गुणशब्द से कबीर का आशय है कि ईश्वर को इंसानों की तरह किसी नाम, रूप, गुण, काल आदि की सीमाओं में बाँधा नहीं जा सकता। अर्थात ईश्वर अजन्मा और अशरीरी है. वो सारी सीमाओं से परे हैं और फिर भी सर्वत्र हैं (सर्वत्र कहने का अभिप्राय यह रहा होगा कि वे या उनकी शक्ति पलक झपकते कहीं भी पहुँचने में सक्षम है, उन्हें कहीं भी बैठ कर याद किया जा सकता है, इंसान का कोई छिप कर किया गया कार्य भी उनसे छिप नहीं सकता है). इसे उन्होंने रमता रामनाम दिया है।

कबीर राम के साथ एक व्यक्तिगत पारिवारिक किस्म का संबंध स्थापित करते हैं। राम के साथ उनका प्रेम उनकी अलौकिक (इस धरती से परे) और महिमाशाली सत्ता (गुणों से भरी अथोरिटी) को एक क्षण भी भुलाए बगैर (लगातार, हर पल याद रखना) सहज मानवीय संबंधों के रूप में  है।
अपने राम को निर्गुण विशेषण देने के बावजूद कबीर उनके साथ मानवीय प्रेम संबंधों की तरह के रिश्ते की बात करते हैं। कभी वह राम को मधुरता भाव से अपना प्रेमी या पति मान लेते हैं तो कभी दासता के  भाव से स्वामी। कभी-कभी वह राम को वात्सल्य भरी  माँ मान लेते हैं ।
अशरीरी ईश्वर के साथ भी इस तरह का मानवीय प्रेम कबीर की भक्ति का अनोखापन है। यह दुविधा  दूसरों को भले हो सकती है कि जिस राम के साथ कबीर मानवीय संबंध जैसा प्रेम करते हों, वह भला निर्गुण कैसे हो सकते हैं, पर खुद कबीर के लिए यह समस्या नहीं है। वह कहते हैं-गुनमैं निरगुन, निरगुनमैं गुन, बाट छांड़ि क्यूं बहिसे!” 

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