Monday 15 June 2015

Life's pleasure lost in the comforts and comparisons.

प्रतियोगिता और सुविधाओं में ही खोया जीवन का आनंद

लोग हमारे घर में भरे सामान की कीमत से हमारा रुतबा आंकते हैं, उसकी तरफ पूरा ध्यान देते हैं और उसके लिए हमारी तारीफ़ करते हैं. उनकी आँखें हमारा वैभव से सजा सजाया हमारा घर देख चमत्कृत नज़र आती हैं तो हम भी फूल कर कुप्पा हो जाते हैं फिर उस वैभव को बनाए रखने का पूरा प्रयास ताउम्र जारी रहता है. अगर हम सोचते हैं कि हमने घर को औरों जैसा नहीं सजाया है तो हम लोगों को अपने घर बुलाते ही नहीं. अगर हमने बहुत महँगी सजावट कि है तो हम लोगों को बुला बुला कर लाते हैं ताकि वे देख लें. अगर किसी ने देखा नहीं तो क्या फायदा हुआ इतना पैसा लगाने का. सजाया तो औरों के लिया है, तारीफ़ के लिए है. अगर किसी के घर गए और उन्होंने हम से बहुत बेहतर और महंगा सजाया है तो हम निराशा, अवसाद या हीन भावना से घिर जाते हैं. फिर आकर अपने घर पर नज़र दौड़ते हैं कि क्या बदल कर नया और बेहतर ले आऊँ कि अपने जानकारों कि बराबरी पर आ जाऊँ.
पहले हम पैदल चलते थे, फिर साइकिल आई, उसके बाद स्कूटर और अब गाड़ी लेकिन दर्द अब भी बना हुआ है कि गाड़ी का मॉडल पड़ोसियों और सहकर्मियों की गाड़ियों से सस्ता और छोटा और पुराना है.
पहले हम रंग उड़े हुए, घिसे हुए या मरम्मत किये वस्त्रादि पहन लेते थे. एक ही वस्त्र सप्ताह में बार बार पहन लेते थे क्योंकि बाकी लोग भी ऐसा ही करते थे. अब हम चाहते हैं कि हमारे वस्त्र को दोबारा पहनने का नम्बर इतनी देर से आए कि लोग उसे भूल चुके हों. और फिर उन्हें लगे कि यह तो नया है.
हम तब भी जिंदा थे जब फोन, मोबाइल, टी. वी., फ्रिज, ए.सी., गैस स्टोव, बल्ब, पंखा, मिक्सर, आदि अनेक चीज़ें हमारे घर में होते ही नहीं थे. ये इजाद ही नहीं हुए थे.
कहा जाता है कि अमीर बनना है तो गाँव में या छोटे शहर में जा बसिए और गरीब बनना है तो राजधानी या बड़े शहर में जा बसिए. अतः अमीरी तो तुलनात्मक ठहरी. पूरा जीवन इसी तुलना के कारण हम भागे फिरते हैं और सुख, चैन, शांति, आराम सब छिन जाता है.
हम जब अपने जीवन का लक्ष्य निर्धारित करते हैं तो सुखी और खुश रहने का नहीं बल्कि धन और पद पर आधारित प्रतिष्ठा पाने का होता है. हम कभी धन और सुविधाओं कि सीमा तय ही नहीं करते कि इतना पाने पर मैं सम्पूर्ण संतुष्ट हो कर आपा धापी छोड़ दूंगा और जीवन धीमी गति से आनंद लेते हुए जीऊँगा. लक्ष्य नज़दीक रखा हो तो हम जल्द उसे पा कर सुखी अनुभव करते हैं किन्तु अगर लक्ष्य हर वर्ष आगे खिसक जाए तो  आमदनी और वैभव बढ़ने कि दौड़ और उसमे होने वाला कष्ट अंतहीन हो जाते हैं. उन्हें पाने के लिए अनेक पाप भी करते हैं जिन्हें हम बिलकुल जायज़ भी ठहराते हैं, जैसे सिफारिश लगाना, कमीशन खाना, रिश्वत लेना, टैक्स देने से बचने के लिए कमाई छिपाना.

जीवन का अंतहीन दौड़ और दर्द हमारी अंतहीन इच्छाओं और सोच की ही पैदाइश है.

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