इंसान में हमेशा ये जिज्ञासा
रही है की मृत्यु के बाद उसका क्या होता है?
ये प्रश्न अपने आप में
एक जवाब तो देता है कि हम अपने आप को सिर्फ शरीर मानने को तैयार नहीं जिसके नष्ट
करने पर हम नष्ट हो जाते हों. हम हमेशा रहना चाहते हैं. हम नहीं रहेंगे ये विचार
हमें स्वीकार नहीं होता. हमारा अंतर्मन मानता है कि हम इस शरीर में रहने वाली चेतन
(जिसमें सोचने समझने की शक्ति हो) शक्ति हैं जो मृत्यु होने पर शरीर को छोड़ देती
है. तभी तो उसे देहत्याग कहा जाता है.
श्रीमद् भागवत गीता
(भगवान द्वारा सुनाई गई श्रेष्ठ मत) कहती है की आत्मा तो अजर -अमर -अविनाशी है. तो
फिर मृत्यु पर आत्मा खत्म कैसे हो सकती है? ज़रूर वह सिर्फ स्थान परिवर्तन और शरीर
परिवर्तन करती है.
अगर सृष्टि चक्रीय रूप
में चलती है तो आत्मा को बार बार शरीर लेना ही होता है. गीता में भगवान् भी कहते
हैं कि मैं धर्म की स्थापना के लिए पुनः पुनः धरती पर आता हूँ. इसका अर्थ है कि
सृष्टि की सभी घटनाओं की एक निश्चित समय के बाद पुनरावृत्ति (दोहराव) होती है.
सभी लोग तो मोक्ष
प्राप्ति (जन्म मरण के चक्र से मुक्ति) का प्रयास नहीं करते. फिर ज़ाहिर है उन्हें
तो फिर से जन्म लेना ही पड़ेगा.
कहते हैं ‘ अंत मति सो
गति’ अर्थात मृत्यु के समय जो हमारी बुद्धि में होता है (जो बात याद आती है, जो
विचार चलते है) उसी के अनुरूप नया जन्म मिलता है. यह कथन भी पूर्व जन्म को सिद्द
करता है.
एक जन्म में हमारी जो
इच्छाएँ अपूर्ण रह जाती हैं उन्हें पूर्ण करने के लिए फिर से जन्म लेते हैं. हम
पूरी तरह संतुष्ट तो कभी भी नहीं होते इसलिए फिर से जन्म लेना ही पड़ता है.
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