Wednesday 10 June 2015

पैंजिया - महा महाद्वीप जहाँ स्वर्ग था / Pangea - The Satyugi Continent



पैंजिया, पैन्जेया या पैंजी 

एक विशाल एकीकृत महाद्वीप (सुपरकॉन्टीनेंट) था जो पृथ्वी पर मौजूद एकमात्र भूखंड था. भूविज्ञानी इसे पैंजिया कहते हैं. एक ही विशाल महासागर पैंजिया को चारों ओर से घेरे हुए था। इसका नाम उन्होंने पैंथालासा रखा. मौजूदा महाद्वीप अपने वर्तमान स्वरूप में इसके विभाजित या विखंडित होने से निकल कर आये हैं।

अपनी पुस्तक "द ओरिजिन ऑफ कॉन्टिनेंट्स एंड ओशंस" (डाई एंटस्टेहंग डर कोंटिनेंट एंड ओजियेन) में अल्फ्रेड वेजेनर ने माना था कि सभी महाद्वीप बाद में विखंडित होने और प्रवाहित होकर (बह कर ) अपने वर्तमान स्थानों पर पहुँचने से पहले एक समय में एक विशाल महाद्वीप का हिस्सा थे । महाद्वीपों के बनने से महासागर भी विखंडित हो गया और नए महासागर बने. भूवैज्ञानिक इस विखंडन को साबित करने के लिए अनेक साक्ष्य व तर्क देते हैं. 

पैंजिया से पहले कई अन्य निर्माण भी हुए हो सकते हैं जैसे पैनोटिया और रोडीनिया। अब भूविज्ञानी यह पूर्वानुमान लगा रहे हैं कि अगर महाद्वीपों का सरकना निरंतर जारी है तो सभी महाद्वीप फिर से इकट्ठे होकर एक नया अविभाजित विशाल महाद्वीप बनाएँगे. 

भू वैज्ञानिक पैंजिया का अस्तित्व लगभग 250 मिलियन वर्ष पहले मानते हैं, जबकि अध्यात्मिक ज्ञान की कुछ शाखाएँ इसे सिर्फ 5000 वर्ष पुरानी घटना मानते हैं. अध्यात्म कहता है की सृष्टि चक्रीय रूप में चलती है. हर 5000 वर्ष में एक बार महाद्वीपीय विखंडन और एक बार महाद्वीपीय विलय घटित होता है. सतयुग के प्रारम्भ में एक भूखंड एक राष्ट्र व एक शासक होता है. भरपूर संसाधन, कम जनसंख्या और प्रकृति की सर्वोत्तम अवस्था के कारण कोई युद्ध, दुःख या शोक नहीं होते. अतः धरती पर ही स्वर्ग होता है. दो युग – सतयुग और त्रेता बीतने पर अर्थात 2500 वर्ष बाद द्वापर युग के प्रारम्भ में धरती की जबर्दस्त हलचल के कारण एक महाद्वीप कई महाद्वीपों में खंडित हो जाता है. यहाँ से दुःख प्रारम्भ होते हैं. जनसंख्या बढती जाती है प्रकृति की हालत बिगडती जाती है. इसलिए धरती पर ही नर्क कहा जाता है. फिर से 2500 वर्ष बीतने पर अर्थात कलयुग के अंत में बड़ी हलचलों के कारण सभी महाद्वीप एकीकृत हो जाते हैं. इन अत्यधिक हलचलों के साथ साथ अधिकतर जनसंख्या खत्म हो जाती है. भूस्खलन, भूकम्प, परमाणु युद्धों, बाढ़, महामारियों, सुनामी आदि के कारण पुरानी जीर्ण क्षीण प्रकृति का नवीनीकरण होकर फिर से स्वर्ग आ जाता है.
भू विज्ञानी इस प्रक्रिया को हालाँकि 250 मिलियन वर्ष में घटित बताते हैं।  इस विषय में एक भूगोल विशेषज्ञ से पूछा गया कि यह गणना किस आधार पर की जाती है। उन्होंने बताया कि गणना के समय टेक्टोनिक प्लेटों के खिसकने की गति से यह अनुमान लगाया जाता है।  किंतु उन्होंने यह स्वीकार किया कि इस बात का कोई प्रमाण नहीं है कि यह गति सदा समान होगी। भूत में यह अधिक भी रही हो सकती है या भविष्य में अधिक हो सकती है।  उन्होंने यह भी बताया कि जब कोई प्रक्रिया अपने अंत पर होती है तब उसकी गति कई गुना बढ़ जाती है जिससे घटनाक्रम अनअपेक्षित तीव्रता से घटते हैं। अतः सत्य स्वीकृत गणना से कुछ भिन्न  हो इस बात को इसे नाकारा नहीं जा सकता।


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